उत्तराखंड में पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले वनों को वन श्रेणी से बाहर रखे जाने के मामले में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने सरकार के आदेश पर रोक लगा दी है। वरिष्ठ न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति एनएस धानिक की खंडपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई।
प्रो. अजय रावत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि सरकार ने 19 फरवरी 2020 को एक नया आदेश जारी किया है, इसमें 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले वनों को वनों की श्रेणी से बाहर रखा गया है। इससे पूर्व भी सरकार ने 10 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले वनों को वन श्रेणी में नहीं माना था लेकिन सरकार ने आदेश में संशोधन कर 10 हेक्टयेर को 5 हेक्टेयर कर दिया।
याचिकाकर्ता का कहना था कि फॉरेस्ट कंजरवेशन एक्ट 1980 के तहत प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित किया गया है। इसमें वनों की श्रेणी को विभाजित किया गया है लेकिन कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिन्हें किसी भी श्रेणी के तहत नहीं रखा गया है। याचिका में संबंधित क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी में शामिल किए जाने की मांग करते हुए कहा गया कि इनके दोहन और कटान पर रोक लगाई जा सकेगी।
याचिकाकर्ता की ओर से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश में गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि किसी भी वन क्षेत्र को वन श्रेणी में रखा जाएगा। उसका मालिक कोई भी हो सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि वनों का अर्थ क्षेत्रफल और घनत्व से नहीं है।
जहां भी 5 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़ पौधे हैं, उनका घनत्व 10 प्रतिशत है तो उन्हें वनों की श्रेणी में रखा गया है। सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार ने कहा है कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदले। पक्षों को सुनने के बाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने सरकार के आदेश पर रोक लगा दी है।
प्रो. अजय रावत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि सरकार ने 19 फरवरी 2020 को एक नया आदेश जारी किया है, इसमें 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले वनों को वनों की श्रेणी से बाहर रखा गया है। इससे पूर्व भी सरकार ने 10 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले वनों को वन श्रेणी में नहीं माना था लेकिन सरकार ने आदेश में संशोधन कर 10 हेक्टयेर को 5 हेक्टेयर कर दिया।
याचिकाकर्ता का कहना था कि फॉरेस्ट कंजरवेशन एक्ट 1980 के तहत प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित किया गया है। इसमें वनों की श्रेणी को विभाजित किया गया है लेकिन कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिन्हें किसी भी श्रेणी के तहत नहीं रखा गया है। याचिका में संबंधित क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी में शामिल किए जाने की मांग करते हुए कहा गया कि इनके दोहन और कटान पर रोक लगाई जा सकेगी।
याचिकाकर्ता की ओर से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश में गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि किसी भी वन क्षेत्र को वन श्रेणी में रखा जाएगा। उसका मालिक कोई भी हो सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि वनों का अर्थ क्षेत्रफल और घनत्व से नहीं है।
जहां भी 5 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़ पौधे हैं, उनका घनत्व 10 प्रतिशत है तो उन्हें वनों की श्रेणी में रखा गया है। सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार ने कहा है कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदले। पक्षों को सुनने के बाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने सरकार के आदेश पर रोक लगा दी है।
हाईकोर्ट ने एसएसपी नैनीताल को दिए यातायात व्यवस्था दुरुस्त रखने के निर्देश
हाईकोर्ट ने वीआईपी दौरे के दौरान पुलिस और प्रशासन की ओर से समय से पूर्व यातायात व्यवस्था रोकने के मामले में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद एसएसपी नैनीताल को व्यवस्थाएं दुरुस्त करने के निर्देश दिए हैं। कोर्ट ने कम समय के लिए यातायात को बाधित करने के निर्देश दिए हैं। मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन एवं न्यायमूर्ति आरसी खुल्बे की खंडपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई।
हाईकोर्ट के अधिवक्ता डॉ. चंद्रशेखर जोशी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा था कि वीआईपी दौरे के दौरान पुलिस तथा प्रशासन की ओर से यातायात व्यवस्था को कई घंटे बाधित किया जाता है। इसकी वजह से कई जरूरी कार्य प्रभावित हो जाते हैं। याचिका में कहा गया कि घंटों यातायात रोका जाना गलत है। याचिकाकर्ता की ओर से प्रार्थना की गई कि वह वीआईपी दौरे को ध्यान में रखते हुए कम से कम समय के लिए यातायात व्यवस्था को बाधित किया जाए।
सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से कोर्ट को बताया गया कि देश में वीआईपी सेवा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री को दी जाती है। उनकी सुरक्षा को देखते हुए दौरे के दौरान कुछ समय के लिए यातायात व्यवस्था को बाधित किया जाता है। पक्षों को सुनने के बाद हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कम समय के लिए यातायात व्यवस्था को बाधित करने के निर्देश देते हुए जनहित याचिका को निस्तारित कर दिया।